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उनका आना / लक्ष्मीकान्त मुकुल

कोई सदमा नहीं है उनका आना
अंधियारा छाते ही सुनाई दे जाती
अनचिन्ह पंछी की बेसुरी आवाज
जैसे कोई आ रहा हो खेतों से गुजरते हुए
दबे पांव बुझे-बुझे सन्नाटे में
चवा भर पानी में तैरती मछलियां
पूंछें डुलाती नाप लेती हैं नदी की धर
भुरभुरा देते केंचुए मिट्टी की झिल्लियां
डेग भरते केकडे़ छू लेते
नदी की अंतहीन सीमाएं
उनका आना नहीं दिखता हमारी आंखों से
वे उड़ते हैं धूलकणों के साथ
हमारे चारों ओर खोये-खोये
वे खोजते हैं गांव-गिरांव
पुरुखों की जड़ें
नदी पार कराते केवटों का डेरालाल चोंच वाले पंछी 15
खोज ले जाते हैं घर के किवाड़ में लगी किल्लियां
जिनके सहारे हम रात भर सपनों में डूबे रहते हैं
इस बाजारू सभ्यता में भी
उनका आना
एक अंतहीन सिलसिला है समाचारों का
उनके आते ही हम
खबरों के कमलदह में तैरने लगते हैं
अनसुने रागों में आलाप भरते हुए।