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उपजाऊ थकान / वेणु गोपाल

थकान अगर उपजाऊ हो
तो तीर का निशान बनाती है
'ज़िन्दगी इधर है।'

अभी-अभी उसकी पर्त टूटी है
और दूब ने आँखें खोलकर
झाँककर
इस दुनिया को देखा है। मैं
उसे अपनी ज़िन्दगी में शामिल करना चाहता हूँ
इसलिए
कागज़-क़लम लेकर
तैयार हो गया हूँ।

ऎसा जब-जब भी होता है
तब-तब सुबह हो रही होती है
किसी भी और सुबह से
बिल्कुल अलग।

दूब
ऎसे में आईना होती है
जिसमें
मैं
अपने चेहरे को
वक़्त
होता हुआ पाता हूँ।

दूब्के सिरों पर
एक हरा-कच्चा भविष्य
ठहरा हुआ है। मेरे
अक्स के सहारे
झिलमिलाता हुआ। मानो
ओस की बूंद में
सूरज ने
अवतार लिया हो।

ऎसे में
दूब के सिरे
सूरजवान आकाश हो गए हैं।

थकान
माँ-निगाहों से देख रही
है यह सब।
प्रसन्न आश्वस्ति में
मुस्कुराती हुई

कि उसकी सन्तानें
ज़िन्दगी तक
पहुँच ही जाएंगी
आख़िरकार।

रचनाकाल : 13.08.1978