उसे
बेवफ़ा होना ही था,
मुझसे
सिलसिला तोड़ना ही था
कोई राब्ता रखना ही न था,
दो कदम साथ चलना भी न था
एक रोज उसे बदल ही जाना था
और
एक रोज मुझे संभल ही जाना था।
वफ़ा की राह में वो
चल न पाएगा, मुझे यकीन था,
बाद इसके भी
मगर हरेक लम्हा उसके साथ का
बहुत हसीन था!
जरूरी नहीं कि
ज़िंदगी में
हर एक काम
मुनाफ़े के लिए ही किया जाए
सिर्फ अपने फ़ायदे के लिए ही जिया जाए।
मैं जानता हूँ कि
उसे न ठहरना था और न वो ठहरा
वो पहले से बादल था मैं पहले से सहरा
मगर
आज भी सोचता हूँ कि
सारी ख़ामियां थी उसमें,
मगर वो फिर भी मेरा हुआ था
एक पल के ही लिए सही
उसने मेरे दिल की तह को छुआ था
यही तसल्ली है
यही भरम है
वह किसी का न हो सकता था,
न मेरा हुआ
मैं यह सोचता हूँ
मैं शिद्दत से सोचता हूँ
‘‘एक रोज उसे बदल ही जाना था
एक रोज मुझे संभल ही जाना था।’’