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उस दिन / शलभ श्रीराम सिंह

ईख की सूखी पत्ती का
एक टुकड़ा था बालों में
पीछे की तरफ़

ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ गई थी
गालों की लाली।

आईने में
अपने चेहरे की सहजता
सहेज रही थीं तुम
खड़ी-खड़ी।

सब कुछ देकर चली आईं थीं
किसी को
चुपचाप।

सब कुछ देकर
सब कुछ पाने का सुख था
तुम्हारे चेहरे और उस दिन

उस दिन
तुमको ख़ुद से शर्माते हुए
देख रहा था आईना।


रचनाकाल : 1992 विदिशा