ऊधौ ! सो मनमोहन रूप।
जो हम निरखयौ सदा नैन भरि सुंदर अतुल, अनूप॥
सिव-बिरंचि-सनकादिक-नारद-ब्रह्मा-बिदित, जग जाने।
सुरगुरु-सुरपति जेहि देखन-हित रहत सदा ललचाने॥
बेद-बुद्धि कुंठित भइ बरनत, ’नेति-नेति’ कहि गायो।
सारद-सेस सहसमुख निसि-दिन गावत, पार न पायो॥
जेहि लगि ध्यान-निरत जोगी-मुनि, नित जप-तप-ब्रत-धारी।
तदपि सो स्याम त्रिभंग मुरलिधर सकत न नैन निहारी॥
सोइ प्रभु दधि-माखन-हित नित प्रति आँगन हमरे आये।
तनिक-तनिक दधि-नवनी दै-दै हम बहु नाच नचाये॥
ऊधौ ! सोइ माधुरी मूरति अंतर-दृगन समाई।
ग्यान-बिराग तिहारौ बोरौ कालिंदी महँ धाई॥