एक अव्यक्त चित्र
इतनी बेहाल
सुरभि हो गई
कि खो गई
हवा में सोती हुई
चीखों के साथ-साथ
घास में छुपी एक अनदेखी
पगवीथी
ले आई मुझको
इस ठाँव तक
पकड़ हाथ
एक लय प्रकम्पित-सी
उठी और टूट गई
आज साँझ
थोड़ी-सी घास देख
उमगी फिर बुझ गई
ऊसर की भूमि बाँझ
पतझर है-
टपक गये
महुवा के पीत-पात
चन्दा की अँजुरी से
टपक गई
तरल रात
बिन बरसे
छोटी-सी वह बदली अव्यक्त
पूरबी क्षितिज पर
जा चुपके से सो गई
कि खो गई