प्राणों से लगी, न निकल रही,
गतस्नेह भी नित जल रही,
बनकर विश्वास
लौ-सी एक आकुल आस!
याद बनकर साँस
मर-मर के भला क्यों जी रही?
क्यों घाव दिल के-सी रही?
अब क्या धरा है पास?
कोई याद बनकर साँस!
प्राणों से लगी, न निकल रही,
गतस्नेह भी नित जल रही,
बनकर विश्वास
लौ-सी एक आकुल आस!
याद बनकर साँस
मर-मर के भला क्यों जी रही?
क्यों घाव दिल के-सी रही?
अब क्या धरा है पास?
कोई याद बनकर साँस!