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कजली / 35 / प्रेमघन

तृतीय विभेद

विशेष विकृत बा सर्वथा स्वतन्त्र लय
रामा हरी
सैय्याँ बिना बिरथा भई जवानी रे हरी-की चाल।

सामान्य लय

जुरी जमात गूजरी जमुना कूल कदम कुंजन मैं रामा।
हरि-हरि हिलि मिलि खेलैं कजरी राधा रानी रे हरी॥
कोउ मृदंग मुहँचंग, चंग, लै सारंगी सुर छेड़ैं रामा।
हरि-हरि कोउ सितार, करतार, तमूरा आनी रे हरी॥
कोउ जोड़ी टनकारैं, कोऊ घंुघरू पग झनकारैं रामा।
हरि-हरि नाचैं कितनी माती जोम जबानी रे हरी॥
छायो सरस सनाको सुन को, गावैं मोद मचावैं रामा।
हरि-हरि गीतैं कजली की कल कोकिल बानी रे हरी॥
हँसत लंक ललकावैं, नाक सकोरैं, ग्रीवँ हलावैं रामा।
हरि-हरि नैन बान मारैं जग भौहैं तानी रे हरी॥
कहर भाव बतलावैं, सुरपुर की सुन्दरिन लजावैं रामा।
हरि-हरि मोहि लियो मन स्याम सुन्दर दिल जानी रे हरी॥
निरखत लीला ललित सुखद सावन मैं ध्यान लगाये रामा।
हरि-हरि भरे प्रेमघन प्रेम जोरि जुग पानी रे हरी॥61॥

॥दूसरी॥

छनहीं छन छन-छबि की छबि है, छहरति आज छबीली रामा।
हरि हरि घिरी घटा घन की क्या, कारी-कारी रे हरी॥
हरी भरी क्या भई भूमि, तरु ललित लता लपटानी रामा।
हरि हरि चलन लगी पुरवाई प्यारी-प्यारी रे हरी॥
कूकैं मधुर मयूरी, नाचैं मुदित मोर मदमाते रामा।
हरि हरि चहुँ चिलायँ चातक चढ़ि डारी-डारी रे हरी॥
गुंजत मंजु मनोज मन्त्र से, भँवर पुंज कुंजन मैं रामा।
हरि हरि फबे फूल खिलि जंगल, झारी-झारी रे हरी॥
बरसत मनहुँ प्रेमघन रस जुबती मिलि झूला झूलैं रामा।
हरि हरि गावैं कजरी सावन, बारी-बारी रे हरी॥62॥