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कजली / 77 / प्रेमघन

त्रिकोन का मेला

प्रधान प्रकार का पंचम विभेद

आई सावन की बहार, विन्ध्यांचल के पहार।
पर मेला मजेदार लगा, चलः चली यार॥
तिय सहित उमंग, मिलि सखियन संग।
चली मनहुँ मतंग, किये सोरहौ सिंगार॥
चोली करौंदिया जरतारी, सारी धानी या जंगारी।
चादर गुल अब्बासी धारी, गातीं कजरी मलार।
पहिने बेसर बन्दी बाला, झूमड़ झूमक मोतीमाला।
कटि किंकिनी रसाला, पग पायल झनकार॥
कहूँ घूँघट उठाय, चन्द बदन दिखाय।
मन्द मन्द मुसुकाय, देत मोहनी-सी डार॥
नैन मद मतवारे, रतनारे कजरारे।
नैन सरसे सुधारे, सैन मार देतीं मार॥
प्रेमी जुव जन भंग पिये, सजित सुढंग।
रँगे मदन के रंग, संग लगे हिय हार॥
कोऊ कलपैं कराहैं, कोऊ भरैं ठण्डी आहैं।
कोऊ अड़े छेंकि राहैं, खड़े तड़ैं कोऊ तार॥
मेला इहि के समान, सैर सुख मैं समान।
महिं होत थल आन, देखि लेहु न विचार॥
प्रेमधन बरसावैं, अति आनन्द बचावैं।
मिरजापुरी सुभावैं, सब मंगल के बार॥134॥