Last modified on 21 मई 2018, at 09:56

कजली / 7 / प्रेमघन

॥नवीन संशोधन॥

आये सावन, सोक नसावन, गावन लागे री बनमोर॥
घहरि-घहरि घन बरसावन, छबि छहरि-छहरि छहरावन।
चातक चित ललचावन चहुँ ओरन चपला चमकावन॥
संजोगिन सुख सरसावन, बिरही बनिता बिलखावन।
अधिक बढ़ावन प्रेम, प्रेमघन पावस परम सुहावन॥17॥