’दिन तो बेचा’—इसके बाद भी
जीना जब हो गया कठिन,
(रात रख दी गिरवी
धूप से, अँधेरे से, हुए अजनबी
आई कुछ सी कड़की)
रिश्ते सब फ़रिश्ते हुए
दूर उड़ गए
दिखलाती दाँत दूध के
दो नए-नए
भूख, प्यास की बड़ी बहिन
नींद की छलांग मार कर
यंत्रवत् चले
फिर भी तो कम नहीं हुए
हठी फ़ासले
घर-बाहर के हुए पुलिन
आई कुछ ऐसी कड़की