हजार घन लीटर पानी में
होती है इतनी ऑक्सीजन विद्यमान
कि लेता रहे आदमी सांस
अस्सी घंटे तक लगातार।
यह संभव ही नहीं कि बन जाए इतना ‘एच टू ओ’-
शामिल हुए बगैर
एक हजार छः सौ सैंतालीस घन लीटर ऑक्सीजन
एन.टी.पी. पर हाईड्रोजन के साथ।
ये भी खूब अजूबा है मेरे मालिक!
कि ऑक्सीजन की इस सघन कोठरी में भी
डूब जाए अगर इंसान
तो तोड़ देता है दम-ऑक्सीजन के बगैर
कुछ ही सैकण्डों में।
‘होने’ और ‘प्रकट होने’ का यह अन्तर
मुझे तसल्ली बख्शता है मेरे करतार!
मैंने देखा है
‘शंकर छाप’ खैनी-गुटकों की खाली पन्नियां
जिन पर छपी है तुम्हारी छवि भोलेनाथ!
लौटती घृणित जगहों पर
कीच और खखार में लिथड़ी
रौंदी जाती उन्हें के जूते तलों
जो चढ़ाते हैं तुमको एक लोटा जल प्रतिदिन
और करते है हजार-धार वाला
रूद्राभिषेक श्रावण मास में-
मैंने देखा है,
‘गोकुल’ शुद्ध देशी घी का डिब्बा
जिस पर अंकित है तुम्हारा
चित्ताकर्षक चित्र माखनचोर!
टोंटी की धार से भरता कि तुम्हारे,
‘‘यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं सः बाहृाभ्यन्तरः शुचिः’’
वाले महात्म्य को
एक नये अर्थालोक से भरता
डिब्बाकार तुमको शौचालय में
प्रक्षालन का उपकरण बनाता।
ओ कण-कण और घट-घट में
परिव्याप्त ईश्वर!
जब सब-कुछ तुमसे ही रचा है
तो तुम्हारी छाप से फिर क्या कुछ बचा है?
विश्व-प्रपंच के किस मंच पर
अनुपस्थित मानूं तुमको?
क्या नहीं हो मौजूद पहले से ही
उन गलियों-नालियों, सड़कों और शौचालयों में भी
जहां तुम्हारी दुर्गति देखकर
बहुत डरती है मेरी मां और पत्नी
और कुपित हो उठते हैं वेदपाठी-वेदांतालंकार
मेरे गुरुदेव
और आक्रोश में भर
तमतमाते चेहरे से प्रश्नों की झड़ी
लगा देता है मेरा बड़ा होता संशयात्मन् बेटा
मुझे निरुत्तर-सा करता।
तुम सब-कुछ जान कर मुस्कुराते
तस्वीर में से झांकते-
अपने ‘होने’ और ‘प्रकट होने’ के अंतर की लीला से
कर देते मेरी सारी शंकाओं का समाधान
मुझको कर देते निहाल।
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हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना।।