कौन जग में अपना आधार?
पतझर में मधुकर के मन-सा,
सूनेपन में सावन-घन-सा
डोल रहा, बाँधे प्राणों में
रस के ज्वर का ज्वार
अपने ही मद से विह्वल-सा,
मृग-सा, पाटल के परिमल-सा,
ढूँढ़ रहा मैं निष्फल, बन-बन,
सौरभ का संसार!
किस-किसकी मैं प्यास बुझाऊँ?
कहाँ बिखर जाऊँ, लुट जाऊँ?
कौन सँभाल सकेगा, मेरी
गंगा का अवतार!