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काग़ज़ पर रेंगती क़लम / रामकुमार कृषक

कागज़ पर रेंगती क़लम
बाँट रही ज़िन्दगी के ग़म !

पेट क्या मिला, हुई ख़ता
श्लील बन गई अवैधता
वक्ष की रखैल ही बनी
जिस घड़ी लिया यहाँ जनम !

मुश्किलों से इस तरह लड़ी
दर्द की दवात से जुड़ी
गीत में रुदन समो दिया
बेबसी ने यों रची रिदम !

श्वेत पृष्ठ भाग्य की बही
रेख-रिक्त हाथ में रही
संगिनी बनी तो एक ही
निर्वसना भूख बेशरम !

सांसों को जोड़ जी चुकी
स्याही का सिन्धु चुकी
साँझ जब मुण्डेर पर चढ़ी
खुल गया समझ भरा भरम !

21 अप्रैल 1972