कृष्णचंद्र उदय भए नंद-भवन सुँदर।
सब के मन-कुमुद खिले, हरखे हिय-मंदिर॥-टेक॥
उमड्यौ आनंद-सिंधु ओर-छोर तज कर।
जन-मन के घाट-बाट डूबे सब सत्वर।
बाल-बृद्ध, जुवक-जुवति, सुध-बुध सब खोकर।
माते सब रंग-राग, लाज-सकुच धोकर॥-१॥
लखत नहीं कोउ कहाँ, कोउ नायँ बूझत।
आनँद-परिपूरन मन स्नेह-समर जूझत।
उछरत क्रमभंग सकल, अति उमंग कूदत।
मन-माने गावत सब, ताल-राग सूदत॥-२॥
नृत्य-गीत-कला-कुसल नाचत, गुन गावत।
सब के मन हरत अचिर, सबके मन भावत।
गावत सब बंदीजन-भाट सुर मिलाकर।
सबके मन मोद भरे जीवन-फल पाकर॥-३॥
दूध-दधि-माखन की मटुकिया भरकर।
आर्ईं ब्रजनागरि सब सुंदरि सज-धजकर।
माखन-दधि-दुग्ध-सरित बही चली पावन।
डूबत सिसु-गनहि मातु लगी सब उठावन॥-४॥
आनँद-उन्मा सकल नाचि उठे जन-मन।
तरुन-तरुनि, बाल-बृद्ध खोए सब तन-मन।
नाचे बिधि-सिव-सुरेस सुर-मुनि सुधि तजकर।
नाचे उपनंद-नंद-भानु, नहीं लजकर॥-५॥
हरदी-दधि-केसर-जुतपय-नदी नहाकर।
धन्य हुए स्नेह-सुधा-सरस रूप पाकर।
दुंदुभि नभ बजत बिपुल, देव सुमन बरसत।
गोकुल के भाग्य कौं सिहात सुर तरसत॥-६॥