Last modified on 30 मई 2014, at 18:39

कृष्णचन्द्र उदय भ‌ए / हनुमानप्रसाद पोद्दार

कृष्णचंद्र उदय भ‌ए नंद-भवन सुँदर।
 सब के मन-कुमुद खिले, हरखे हिय-मंदिर॥-टेक॥

 उमड्यौ आनंद-सिंधु ओर-छोर तज कर।
 जन-मन के घाट-बाट डूबे सब सत्वर।
 बाल-बृद्ध, जुवक-जुवति, सुध-बुध सब खोकर।
 माते सब रंग-राग, लाज-सकुच धोकर॥-१॥

 लखत नहीं को‌उ कहाँ, को‌उ नायँ बूझत।
 आनँद-परिपूरन मन स्नेह-समर जूझत।
 उछरत क्रमभंग सकल, अति उमंग कूदत।
 मन-माने गावत सब, ताल-राग सूदत॥-२॥

 नृत्य-गीत-कला-कुसल नाचत, गुन गावत।
 सब के मन हरत अचिर, सबके मन भावत।
 गावत सब बंदीजन-भाट सुर मिलाकर।
 सबके मन मोद भरे जीवन-फल पाकर॥-३॥

 दूध-दधि-माखन की मटुकिया भरकर।
 आर्ईं ब्रजनागरि सब सुंदरि सज-धजकर।
 माखन-दधि-दुग्ध-सरित बही चली पावन।
 डूबत सिसु-गनहि मातु लगी सब उठावन॥-४॥

 आनँद-‌उन्मा सकल नाचि उठे जन-मन।
 तरुन-तरुनि, बाल-बृद्ध खो‌ए सब तन-मन।
 नाचे बिधि-सिव-सुरेस सुर-मुनि सुधि तजकर।
 नाचे उपनंद-नंद-भानु, नहीं लजकर॥-५॥

 हरदी-दधि-केसर-जुतपय-नदी नहाकर।
 धन्य हु‌ए स्नेह-सुधा-सरस रूप पाकर।
 दुंदुभि नभ बजत बिपुल, देव सुमन बरसत।
 गोकुल के भाग्य कौं सिहात सुर तरसत॥-६॥