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केवल रामहीसे मांगो / तुलसीदास/ पृष्ठ 3

 
उद्बोधन-1

( छंद 29 से 34 तक)

(29)

सुनु कान दिएँ , नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे।।
सुखमंदिर सुंदर रूपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहिं रे।।

रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहिं रे।
करू संग सुसील सुसंतन सों, तजि क्रूर , कुपंथ कुसाथहि रे।।
 
(30)

सुत, दार, अगारू ,सखा, परिवारू बिलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहिं रे।।

नरदेह कहा, करि देखु बिचारू, बिगारू गँवार न काजहिं रे।।
जनि डोलहि लोलुप कूकरू ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहिं रे।।