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केवल रामहीसे मांगो / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

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उद्बोधन-2

( छंद 31 से 32 तक)

 (31)

 बिषया परनारि निसा-तरूनाई सो पाइ पर्यो अनुरागहि रे।
जमके पहरू दुख, रोग बियोग बिलोकत हू न बिरागहि रे।।

ममता बस तैं सब भूलि गयो, भयो भोरू भय, भागहिं रे।
जरठाइ दिसाँ, रबिकालु उग्यो, अजहूँ जड़ जीव! न जागहिं रे।।

(32)
  
जनम्यो जेहिं जोनि, अनेक क्रिया सुख लागि करीं, न परैं बरनी।
जननी-जनकादि हितू भये भूरि बहोरि भई उरकी जरनी। ।

तुलसी! अब रामको दासु कहाइ, हिएँ धरू चातककी धरनी।
 करि हंसकेा बेषु बड़ो सबसों , तजि दे बक-बायसकी करनी।।