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कैसा प्रहर है / यतींद्रनाथ राही

लग रहा बीमार सूरज
भोर का
कैसा प्रहर है?

मौन तुम हो
मौन हम हैं
मौन साधे हैं हवाएँ
और ये
दहशत भरी सी
मौन हैं गुमसुम दिषाएँ
कौन बोले
कौन सुनता है
किसी को अब यहाँ पर
तुमुल-ध्वनि-कोलाहलों में
शब्द की सीमा कहाँ पर?
धूल में बारूद बिखरी
और
पानी में ज़हर है!

आदमी पत्थर हुआ है
याकि केवल यन्त्र है वह
हो गया संवेदना से शून्य
सारा तन्त्र है यह
प्यार-ममता-नेह-नाते
खो गए जाने कहाँ सब
नफरतों के बीज कोई
बो गया आकर यहाँ कब?
कौन अपना है पराया
यह
मुखौटों का शहर है।

सिर पटकती है अहल्या
राम जाने है कहाँ पर
हर पुरुश में छद्म-वेषी
इन्द्र ही दिखता यहाँ पर
का पुरुष गौतम
खड़ा है
शाप का पाखण्ड धारे
है कोई
देवत्व के
कुत्सित मुखौटों को उघारे
राजपथ भयभीत से
दुष्कर्म पीड़ित
हर डगर है।

द्रोपदी शकुन्तला हो
या, स्वयं हो जानकी ही
क्यों सदा नारी रही है
पात्र हर अपमान की ही
मौन के इस शून्य पट पर
दहकते हैं प्रश्न कितने
धर सकें
उत्तर इन्हें हम
शब्द ही हैं कहाँ इतने?
है अलामत ज्वार की
तुम समझ बैठे हो
लहर है।