Last modified on 23 अक्टूबर 2017, at 14:49

कैसा शोर है प्यारे / यतींद्रनाथ राही

कहीं पर
बन्द खिड़की है
कहीं पर
बन्द देखा ज़े
यह कैसा शोर है प्यारे।
मजीरे पीटर कर तो
क्रान्तियों के स्वर नहीं रूकते
हवाओं आँधियों से
पर्वतों के
सिर नहीं झुकते
यह ष्षंख ध्वनि उठी है
शक्ल सीरत को बदलने की
अँधेरों की गुहाओं से
नया सूरज निकलने की
सजाओ स्वास्तिका
मंगल कलश
घर-द्वार गलियारे!

चलो!
कुछ धूल तो झाड़ें
कहीं कुछ रोशनी बाँटें
पथें को रोकर
उलझी पड़ी
ये झाड़ियाँ छाँटें
हमारा फर्ज़ है
भटके हुओं को
राह पर लाएँ
भले रूखी मिले
ईमान की
दो रोटियाँ खाएँ
कराएँ मुक्त
काली कोठियों के
बन्द उजियारे।

लगे उंगली अगर सबकी
तो गोवर्धन भी उठता है
किसी की एक ताकत से
कभी क्या
घर सँवरता है
कहीं मातम
कहीं हुल्लड़
कहीं पर राग दरबारी
महज़
मतलब परस्ती है
नहीं दिखती है खुद्दारी
कलम की गति
कहाँ ठिठकी
अधर के स्वर
कहाँ
यह कैसा शोर है प्यारे!