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कोठ का बाँस / देवेन्द्र कुमार

कल तक का गुस्सा
जो रात एक जगह जम गया था
सुबह होते ही पिघलकर चारों तरफ़ फैलने लगा

देखते देखते ही आसमान लाल हो उठा
उसने मुड़कर देखा
वह अकेला नहीं था और न निहत्था
हवा के तेज़ झोंके से
शाख और पत्तियों में ठन गई थी
पौधे अगल-बगल खड़े थे
कमर की सीध में बन्दूक की तरह तने हुए
झाड़ियाँ तरकस के तीर की तरह
गर्दन निकालकर झाँक रही थीं मौक़े की ताक में

एक इशारे पर बाहर निकलने के लिए
किनारे की कोठ का बाँस झुक आया था
नीचे ज़मीन तक
गोया कह रहा हो कि देखो मुझमें से
कितनी लाठियाँ निकल सकती हैं ?

मैं ख़त्म होने को नहीं
कटने के बाद अगली बरसात में फिर कोंपल फूटेगी
नए नए बाँस होंगे मुझसे भी ऊँचे
मज़बूत और सलीके के
आने वाले सूरज का स्वागत करने के लिए

मेरी पैदाइश ही है जुर्म के विरोध में