काहे रोवत हो छत्रीगन अपने करतब के फल पाय॥
रघु, अज, राम, कृष्ण, अरजुन के निर्मल कुल मैं जाय।
त्याग्यो उनको मारग तुम भूल चले कुपथ चित चाय॥
तुमहिं शक्यमुनि गौतम बुद्ध ह्वै जगजन बुधि बहकाय।
निन्दा वेद, यज्ञ, द्विज की करि दियो धरम विनसाय॥
मिथ्या जीव दया दिखाय दियो देसहि निबल बनाय।
बोयो बीज बिरोध समय निरुपद्रव में इत ल्याय॥
चन्द्रगुप्त सम होन लगे नृप, यवनी रानी आय।
गयो तेज व आरजता नसि सूद्र कहाये राय॥
तुम असोक ह्वै बौद्ध, त्यागि मत वैदिक, ठाटनिठाय।
साठ हजार दिजन एकै दिन दीनो देस छुड़ाय।
कल्पित धरम प्रचारयो निज सासन बल जगत जगाय।
नास्यो हिंसाही संग हिम्मत, तेज, पराक्रम, हाय!
निबल होय जयचन्द पिथैरादिक गृह कलह बढ़ाय।
टेरि आपु निज घर बरमाला सत्रुन दियो दिखाय॥
लरि लरि जीत-जीत परबल रिपु धन लै छोड़यो भाय।
हारि कटायो सीस उनहिं कर भारत गरब गँवाय!
धारि परस्पर वैर लड़े नहिं इकसंग सन्मुख धाय।
नास्यो धरम स्वतन्त्रता सबै कादरता प्रगटाय!
तुमरी भूलनि भला प्रेमघन गिनि कब सकै बताय।
जैसो कियो सहो तैसो क्यों सोचहु सीस नमाय॥145॥