ख़त आता था, वह जाता था
बहुत अनकही, कह जाता था।
बूढ़े बरगद की छाया में
पूरा कुनबा रह जाता था।
झगड़ा, मनमुटाव, ताने सब
इक आंसू में बह जाता था।
कहे-सुने को कौन पालता
जो कहना हो कह जाता था।
तन की, मन की सब बीमारी
मां का आंचल सह जाता था।
कई दिनों का बोल-अबोला
मुस्काते ही ढह जाता था।
लाख अभावों के जीवन में
भाव सदा ही रह जाता था।