ख़ुश रहो कहकर चला / ज्योति खरे

ख़ुश रहो कहकर चला
जानता हूँ उसने छला

सूरज दोस्त था उसका
तेज़ गर्मी से जला
 
चान्दनी रात भर बरसी
बर्फ़ की तरह गला
 
उम्र भर सीखा सलीका
फटे नोट की तरह चला
 
रोटियों के प्रश्न पर
उम्र भर जूता चला
 
सम्मान का भूखा रहा
भुखमरी के घर पला

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