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ख़ून और ख़ामोशी / सविता सिंह

दस साल की बच्ची को
यह दुनिया कितनी सुघड़ लगती थी
इसमें उगने वाली धूप, हरियाली
नीला आकाश कितना मनोहर लगता था
यह तो इसी से पता चलता था कि
खेलते-खेलते वह अचानक गाने लगती थी कोई गीत
हँसने लगती थी भीतर ही भीतर कुछ सोचकर अकेली
बादल उसे डराते नहीं थे
बारिश में वह दिल से ख़ुश होती थी
मना करने पर भी सड़कों पर कूद-कूद कर नहाती और नाचती थी

दस साल की बच्ची के लिए
यह दुनिया संभावनाओं के इन्द्रधनुष-सी थी
यही दुनिया उस बच्ची को कैसी अजीब लगी होगी
हज़ारों संशयों भयानक दर्द से भरी हुई
जिसे उसने महसूस किया होगा मृत्यु की तरह
जब उसे ढकेल दिया होगा किसी पुरुष ने
ख़ून और ख़ामोशी में
सदा के लिए लथपथ