गये श्यामसुन्दर जब मथुरा, छोड़ पवित्र प्रेम-रस-धाम।
बिरहातुरा गोप-रमणी सब पागल-सी हो गयीं तमाम॥
एक देखती, कहीं प्रकट हो दर्शन दे दें, नभकी ओर।
एक निराश हुई अति आकुल भई पूर्व-स्मृति-मग्र, विभोर॥
एक देख कुछ आशा-अंकुर, भरती अति मनमें अनुराग।
एक चकित-सी सोच रही, क्योंकिया हमारा प्रियने त्याग॥
सभी खिन्न, विच्छिन्न-हृदय सब, भिन्न-भिन्न कर रहीं विचार।
आठों पहर गोपियाँ करतीं श्याम-संग यों विरह-विहार॥