ग़ैरों की दुनिया में
सब्ज़बाग़ अपने हैं
यह भी तो बात कम नहीं !
कितना है भरम
भोर कह देना
खटिया की टूट
टूट सह लेना,
दुनिया की दौलत में
मेहनत है अपनी तो
यह भी सौगात कम नहीं !
कितना है धरम
चुप्प रह जाना
अपने को
अपने पर सह जाना,
दौलत के दर्शन में
दैहिकता अपनी तो
यह भी औक़ात कम नहीं !
कितना है पुन्न
सच्च गह लेना
भर–जीवन
मुश्किल को शह देना,
दर्शन की गंगा में
विष विशेष अपना तो
हम भी सुकरात कम नहीं !
–
17 जनवरी 1976