गाँव से आना
न बन पाना सही शहरी
हमें पिछड़ा गया है !
ये शहर
ये सभ्यता
आकाश बैठी ये बुलन्दी
छोड़कर खलिहान
राशन-रोटियों की भूख बन्दी !
अब नहीं
पैबन्द-पर-पैबन्द लगते
ज़िन्दगी का यह लबादा
इस तरह चिथड़ा गया है !
ये बहर
अँगरेज़ियत ये
अर्थकामी उड़नदस्ते
मोलते महँगाइयों को
हो रहे ख़ुद ख़ूब सस्ते !
अब नहीं
सम्बन्ध-पर-सम्बन्ध जुटते
बन्दगी से आदमी को
इस तरह बिछड़ा गया है !
7-11-1976