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सुकसों गहवर हिये कहै सारो |
बीर कीर! सिय-राम-लषन बिनु लागत जग अँधियारो ||
पापिनि चेरि, अयानि रानि, नृप हित-अनहित न बिचारो |
कुलगुर-सचिव-साधु सोचतु, बिधि को न बसाइ उजारो ?||
अवलोके न चलत भरि लोचन, नगर कोलाहल भारो |
सुने न बचन करुनाकरके, जब पुर-परिवार सँभारो ||
भैया भरत भावतेके, सँग बन सब लोग सिधारो |
हम पँख पाइ पीञ्जरनि तरसत अधिक अभाग हमारो ||
सुनि खग कहत अंब! मौङ्गी रहि समुझि प्रेमपथ न्यारो |
गए ते प्रभुहि पहुँचाइ फिरे पुनि करत करम-गुन गारो ||
जीवन जग जानकी-लषनको, मरन महीप सँवारो |
तुलसी और प्रीतिकी चरचा करत, कहा कछु चारो ||