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रघुपति मोहि सङ्ग किन लीजै
बार बार पुर जाहु, नाथ केहि कारन आयसु दीजै ||
जद्यपि हौं अति अधम, कुटिलमति, अपराधिनिको जायो |
प्रनतपाल कोमल-सुभाव जिय जानि, सरन तकि आयो ||
जो मेरे तजि चरन आन गति, कहौं हृदय कछु राखी |
तौ परिहरहु दयालु, दीनहित, प्रभु, अभिअंतर-साखी ||
ताते नाथ कहौं मैं पुनि-पुनि, प्रभु पितु, मातु, गोसाईं |
भजनहीन नरदेह बृथा, खर-स्वान-फेरुकी नाईँ ||
बन्धु-बचन सुनि श्रवन नयन-राजीव नीर भरि आए |
तुलसिदास प्रभु परम कृपा गहि बाँह भरत उर लाए ||