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बिनती भरत करत कर जोरे |
दीनबन्धु! दीनता दीनकी कबहुँ परै जनि भोरे ||
तुम्हसे तुम्हहि नाथ मोको, मोसे जन तुमको बहुतेरे |
इहै जानि, पहिचानि प्रीति, छमिए अघ-औगुन मेरे ||
यों कहि सीय-राम-पाँयनि परि लषन लाइ उर लीन्हें |
पुलक सरीर, नीर भरि लोचन, कहत प्रेम-पन-कीन्हें ||
तुलसी बीते अवधि प्रथम दिन जो रघुबीर न ऐहौ |
तौ प्रभु-चरन-सरोज-सपथ जीवत परिजनहि न पैहौ ||