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हौं तो समुझि रही अपनो सो |
राम-लषन-सियको सुख मोकहँ भयो, सखी! सपनो सो ||
जिनके बिरह-बिषाद बँटावन खग-मृग जीव दुखारी |
मोहि कहा सजनी समुझावति, हौं तिन्हकी महतारी ||
भरत-दसा सुनि, सुमिरि भूपगति, देखि दीन पुरबासी |
तुलसी राम कहति हौं सकुचति, ह्वैहै जग उपहाँसी ||