(87)
राघौ! एक बार फिरि आवौ |
ए बर बाजि बिलोकि आपने, बहुरो बनहि सिधावौ ||
जे पय प्याइ, पोखि कर-पङ्कज, बार-बार चुचुकारे |
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाड़िले! ते अब निपट बिसारे ||
भरत सौगुनी सार करत हैं, अति प्रिय जानि तिहारे |
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे, मनहु कमल हिम-मारे ||
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन, कहियो मातु-सँदेसो |
तुलसी मोहि और सबहिनतें इन्हको बड़ो अँदेसो ||