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गुप्त गोदावरी / दिनेश कुमार शुक्ल

पौधों के शिराजाल के
पर्णरस की नदियों में
घण्टों तैरती
वह घुस जाती थी
धातुओं के भीतर के बादल में
जहाँ तड़ित् के साथ
वह भी चमकती थी

विचार के जंगल में
तर्क की सजगता के
साथ चलती वह शेरनी,
जीविका विहीन पिता की जवान बेटी
वह शांत रहती थी पर्वत-सी
संसार के निरर्थक कोलाहल में,
कैसी भी चकाचौंध
नहीं झपका सकती थी
उसकी पलकें

कभी-कभी झील की तरह
वह मेरे भीतर
भरती चली आती थी,
कभी-कभी मैं ही
जा बैठता था उसके तट पर

एक दिन आवाज
जाने कहाँ से आई अचानक
झील वह खो गई पाताल में

मैं बुलाता रहा उसको
गा-गा कर सारी भाषाओं के जलगीत
दसों दिशाओं को बजाता रहा
जल तंरग की तरह,
मैंने समुद्र और बादलों से भी कहा
उसे वे वापस बुलायें,
भूगर्भ के सनातन जल से भी प्रार्थना की,
उड़ेल दिये मैंने
सारे संसार के जीवन रस
किन्तु वापस झील फिर भी नहीं आई

बहुत-बहुत दिनों बाद
एक बार दिखी वह
अपनी बतखों को
संसार सागर में तैरना सिखाते हुए
अपने ही दूसरे तट पर!