चला नीम की घमछैयाँ में
बात करें
कुछ मन हलकालें!
याद गाँव की
दर्द शहर के
गाते-सुनते बीत गए दिन
भरते रहे पृष्ठ पुलकन के
चुभते रहे कभी तीखे पिन
अब क्या ऐसा हुआ
धर दिया
तुमने मुझे शिखर के ऊपर
रहने दो
बाँहों में प्रियवर
तुम छाती से मुझे चिपककर
रूठ गए लगता बीते दिन
कुछ पुचकारें
कुछ दुलरा लें
इस हरियल भव के उपवन में
भटक गया तो
पंथ कहाँ है?
और
विमादक रस प्लावन में
डूब गया तो
अन्त कहाँ है?
जैसा हूँ
वैसा अच्छा हूँ
मुझे यहीं पर तुम रहने दो
अभी कलम चलती है
तब तक
गीत और कुछ तो कहने दो
मैले बहुत
अभी हैं दर्पण
कुछ तो इन्हें और उजरालें।