देवियो और सज्जनो ! 
यह हमारी आख़िरी बातचीत है
— हमारी पहली और आख़िरी बातचीत — 
कवि ओलिम्पस के पहाड़ से उतर आए हैं ।
पुराने लोगों के लिए 
कविता विलास की चीज़ थी 
लेकिन हमारे लिए 
बेहद ज़रूरी है 
हम कविता के बिना जी नहीं सकते ।
अपने पुरखों के विपरीत 
— और मैं पूरी इज़्ज़त के साथ कहता हूँ —
हमारा मानना है 
कवि कोई कीमियागर नहीं है 
कवि हर इनसान की तरह एक इनसान है 
दीवार बनाने वाला एक राज़गीर 
खिड़कियाँ और दरवाज़े बनाने वाला ।
हम बोलते हैं 
रोज़मर्रा के मुहावरे 
रहस्य से भरे गुप्त प्रतीकों में हमें यकीन नहीं ।
और एक बात : 
कवि इस बात का ख़याल रखेंगे 
कि पेड़ टेढ़ा-मेढ़ा न उगने लगे ।
यह हमारा पैग़ाम है । 
हम ठुकराते हैं ईश्वर जैसे कवियों को 
तिलचिट्टे जैसे कवियों को 
किताबी कीड़े कवियों को ।
ये सारे महाशय 
— और मैं बहुत इज़्ज़त के साथ कहता हूँ —
इन पर इल्ज़ाम लगाते हुए इन्हें कठघरे में लाना है 
हवाई किले बनाने की ख़ातिर 
चान्द के बारे में सॉनेट लिखते हुए 
समय और पन्ने बरबाद करने की ख़ातिर 
पेरिस की नई डिज़ाईन की तर्ज़ पर 
बेतरतीब शब्दों को जोड़ने की ख़ातिर 
यह हमारे लिए नहीं ! 
विचार का जन्म ज़बान पर नहीं होता है 
यह दिल में जनम लेता है ।
हम ठुकराते हैं 
काले चश्मों की कविता 
लबादों और तलवारों की कविता 
सिलिण्डर हैट की कविता 
हम चाहते हैं 
नँगी आंखों की कविता 
बालों से भरे सीने की कविता 
नँगे सिर की कविता ।
परियों और समुद्री देवों में हमें यक़ीन नहीं । 
कविता ऐसी होनी चाहिए  
जैसे गेहूँ के खेत में खड़ी एक लड़की —
वरना कुछ भी नहीं ।
और अब राजनीति के स्तर पर 
वे, हमारे ठीक पहले आने वाले, 
हमारे भले नज़दीकी पुरखे, 
मणिभीय प्रिज़्म से गुज़रते हुए 
मुड़ते थे, बिखरते थे । 
उनमें से कुछ कम्युनिस्ट बनकर आए । 
मुझे पता नहीं कि वे सचमुच थे या नहीं । 
मान लिया जाए कि वे कम्युनिस्ट थे ।
 
मैं इतना ही जानता हूँ : 
वे जनता के कवि नहीं थे 
वे दलाल बुर्जुआ कवियों के सिवा कुछ नहीं थे । 
बात जैसी है वैसी कहनी पड़ेगी : 
सिर्फ़ एक या दो को ही 
जगह मिल सकी 
जनता के दिल में । 
जब भी उनसे हो सका 
शब्दों और कार्यों में उन्होंने ख़ुद को ऐलान किया 
मकसद की कविता के खिलाफ़ 
वर्तमान की कविता के खिलाफ़ 
सर्वहारा की कविता के खिलाफ़ ।
मान लिया जाए कि वे कम्युनिस्ट थे 
लेकिन कविता बिल्कुल बेकार थी 
दूसरे दर्जे का अतियथार्थवाद 
तीसरे दर्जे की पतनशीलता 
समुद्र से बहकर आए लकड़ी के तख़्ते । 
विशेषण की कविता 
नाक और गले से उगली कविता 
मनमानी कविता 
क़िताबों से नक़ल की गई कविता 
शब्दों की क्रान्ति की बुनियाद पर कविता 
— जबकि दरअसल 
कविता विचारों की क्रांति से आनी चाहिए —
ख़त्म न होनेवाले भँवरों की कविता 
आधा दर्जन चुने लोगों के लिए 
“अभिव्यक्ति की पूरी स्वतन्त्रता ।”
आज हम सिर खुजलाते हुए पूछते हैं 
टटपूँजियों को डराने के लिए 
ऐसी चीज़ें उन्होंने क्यों लिखी ? 
वक़्त की ऐसी बरबादी ! 
जब तलक उनके पेट पर चोट नहीं पड़ती 
टटपूँजियों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।
आख़िरकार कविता से डरता कौन है !
बात ऐसी है : 
वे चाहते थे 
झुटपुटे की कविता 
आधी रात की कविता 
हम चाहते हैं 
पौ फटने की कविता । 
हमारा पैग़ाम है : 
कविता की रोशनी 
सबके लिए हैं 
कविता हम सबका ख़्याल रखती है ।
बात यही है, साथियो ! 
हम ठुकराते हैं 
— अगर इज़्ज़त के साथ कही जाय — 
छोटे देवों की कविता 
पवित्र गाय की कविता 
गुस्सैल साँड़ की कविता ।
बादलों की कविता के ख़िलाफ़ 
हम लाते हैं ठोस ज़मीन की कविता 
— ठण्डे हाथ, गर्म दिल 
हम साफ़-साफ़ ज़मीन के लोग हैं — 
कहवाघर की कविता के ख़िलाफ़ लाते हैं हम 
खुली हवा की कविता 
ड्रॉइँगरूम की कविता के ख़िलाफ़ 
खुले चौक की कविता 
सामाजिक विरोध की कविता ।
कवि अब ओलिम्पस के पहाड़ से उतर आए हैं ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य