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छुओ मत ! / गोपीकृष्ण 'गोपेश'

        वीणा के, देखो, तार छुओ मत !

तुम इस पर कुछ बजा सकोगे, कैसे हो विश्वास,
उर में पीर, नयन में आंसू नहीं तुम्हारे पास !
        पतझर के पत्तों से बिखरे हैं
        जिसके अरमान,
        रुंधे गले से जो गाता है सदा
        हृदय के गान,

उसके अरमानों-गानों के ये आकार छुओ मत !
        वीणा के, देखो, तार छुओ मत !!

कलाकार की सी आँखों में ज्योति न तुमने पाई !
कलाकार की अपनी दुनिया तुमने नहीं बसाई !
        इस दुनिया के शब्दों में जो कभी
        प्यार करता है,
        अपनी छोटी सी दुनिया पर जग
        निसार करता है,

उसके राग-त्याग के सुन्दर ये आगार छुओ मत !
        वीणा के, देखो, तार छुओ मत !!

तुम क्या जानो आंसू की, आहों की परिभाषाएँ !
तुम क्या जानो दग्ध-प्रणय की अपनी अभिलाषाएँ !
        आरोहों-अवरोहों में जो शत-शत
        दीप जलाए,
        जो दीपों में ज्योति, ज्योति में प्रिय की
        छवि बन जाए

उसके ’दीपक’ — ’प्रिय’ की छवि के ये आधार छुओ मत !
        वीणा के, देखो, तार छुओ मत !!