बांस में फूटती है कोंपल
ईख के पोरों में बहती है मीठी धार
रिसता है नदी का तलछट
पतझड़ के बाद टुस्सों से
भर जाती है पाकड़ की टहनियां
अंकुर होती है कोई उम्मीद बीच पठार में
वैसे ही जन्मा था अँधेरे में
जैसे थिरकती है हवा में
ढिबरी की जलती लौ
मेरे आने के समय
शासकों की तन गयी थी निगाहें
उसकी जलती आँखें कोड़े
बरसा रही थीं हमारी नन्हीं पीठ पर
उसके द्वारा भेजी गयी पूतना
संखियाँ घोल रही थी हमारे भोज्य में
पृथ्वी के इस कोने से उस कोने तक
खोजता रहा फिलिस्तीनियों की तरह बसेरा
अपने हिस्से की मिटटी-गंध
दालमोठ की तरह स्वादिष्ट लगी मुझे
अपने हाथों से खोदा कुआं का जल
मिटाता रहा बरसों की तृष्णा
अपनी सतरंगी खुशियों को खोजते रहे
अनवरत मेरे पाँव!