Last modified on 24 दिसम्बर 2009, at 01:39

जीने के लिए / शलभ श्रीराम सिंह

दाँत की दर्द की तरह
अखर रहा हूँ ख़ुद को ।

किरकिरी की तरह
करक रहा हूँ अपनी आँख में।

कांटे की तरह
धँसा हुआ हूँ पाँव में अपने।

जीने के लिए बेहद ज़रूरी है
थोड़ी बेशर्मी
हिम्मत थोड़ी-थोड़ी

थोड़ा-थोड़ा कुछ भी छोड़ देने का
अभ्यास।


रचनाकाल : 1992, विदिशा