ज्योति की तलवार / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

देख कर संसार का व्यवहार
मुझको लग रहा है-
अब मनुज की, मनुजता की
हार होती जा रही है।

जिस मनुज के सब दिशाओं
मेंविजय-रथ-चक्र घूमे;
व्योम-भू-पाताल ने जिस
की विजय के चरण चूमे।

लग रहा था वह मनुज इस
सृष्टि का शृंगार होगा,
किंतु उसकी प्रकृति अब
अंगार बनती जा रही है।1।

जिस मनुज ने युग-युगों से
था समय का चक्र बदला;
क्या समय का चक्र उससे
ले रहा है आज बदला?

था लगा-उसका समय की
धार पर अधिकार होगा,
किंतु उसके हाथ से-
पतवार छूटी जा रही है।2।

लोक-मंगल कालिए वह
ध्येय, यात्रा पर चला था;
बुद्धि का दीपक हृदय के
स्नेह से भर कर जला था।

लग रहा था-उस सुनहरी
ज्योति का विस्तार होगा,
किंतु अब वह ज्योति ही
तलवार बनती जा रही है।3।

क्या चढ़ा उन्माद उसको?
आ गया दुर्बल-क्षणों में?
क्या फँसा अभिमान-ईर्ष्या-
स्वार्थ के विष-चंगुलों में?

लग रहा संसार का अब
मनुज उपसंहार होगा,
सार-गर्भी भूमिका
निस्सार होती जा रही है।4।

किंतु मानव मूलतः तो
दिव्य चेतन अंश ही है;
स्वयं भी उसको चलाना
मनुजता का वंश भी है।

इसलिए संसार के-
व्यवहार में बदलाव होगा;
चेतना उसकी शुरू से
ही गुहार मचा रही है।5।

18.8.89

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