झाड़ियों में से मुझे आवाज़ न दो
ओ, इन्सानों की दुनिया !
झाड़ियों में से मुझे दो ऐसी ख़ामोशी
जैसी रहती है मौत और भाषा के बीच ।
ऐसी ख़ामोशी जिसका नहीं कोई नाम
या है नाम हज़ारों-हज़ार तरह के
गहरी और अमिट ख़ामोशी
ख़ामोशी हमारी अमर्त्य कविताओं की
ख़ामोशी पुराने उद्यानों के धुँधलेपन की
ख़ामोशी नए संगीत की अस्पष्टता की
ख़ामोशी तोतली बोली के अबूझपन की
ख़ामोशी फाउस्ट के दूसरे भाग की जटिलता की
ऐसी ख़ामोशी जो होती है
सबसे पहले और सब कुछ के बाद ।
मंच पर आते असंख्य लोगों के शोर
कानों पर प्रहार करते शोर
अपने भीतर सब कुछ गड्ड-मड्ड करते शोर
हर तरह के शोर के बीच मुझे दो ख़ामोशी ।
जैसे पूरब के सब घड़े
रख दिए गए हों पहाड़ी के मस्तक पर
मुझे दो ऐसी ख़ामोशी
जो व्यक्त न हो पाए किसी भी तरह पूरी-की-पूरी ।