झूलत कुंजनि प्रेम हिंडोरैं।
स्यामा-स्याम प्रीति तन पुलकित हिय रस लेत हिलोरैं॥
नैन रसाल, बिसाल भाल, कल भौंह-कटाच्छ झकोरैं।
तन-मन-प्राण परस्पर अर्पित परम रसिक रस बोरैं॥
ललित सखी ललितादि झुलावत दै-दै झोंटा झोरैं।
स्याम-गौर तन झलकत श्रम-कन जोवन मदके जोरैं॥
बोलनि मधुर-मधुर मृदु मुसुकनि निरखि-निरखि तृन तोरैं।
मन आनंद मगन दोउन के नित नवीन रस घोरैं॥