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डिग्रियों के नाक पर / रामकुमार कृषक

डिग्रियों के
नाक पर चश्मे चढ़े हैं
हम खड़े हैं
लाइनों में नौजवानों की !

हाथ में अख़बार
बेकारी ज़हन में
और आँखों में लबालब
ख़ुश्क पानी
इस क़दर बीमार
भूले मुट्ठियों को
और चाहत देहरी की निग़हबानी,

टूटते / हर पल बिखरते
हम पड़े हैं
पाकिटों में अक़्लवानों की !

शोरगुल / परिहास
मेले मण्डपों के
और चेहरे चीन्हतीं
चौकस निगाहें
ख़ूब ! क्या इतिहास
क्या स्वागत हमारा
उठ रहीं ख़ुद गाव–तकिए
छोड़ बाँहें,

चौंकते / कुछ कसमसाते
हम बँधे हैं
कुर्सियों से मेज़बानों की !

25-3-1976