वे आये
और उतार कर ले गये
बग़ल में बैठे आदमी की कमीज़
मैं अपने जूतों के फीते कसता रहा
और हँसता रहा
एक महीन बेशर्म लम्बी तटस्थ हँसी
सवालों से आँख बचाकर
मैं खिसक तो आया नेपथ्य में
लेकिन खु़द से
सवाल करती हुई मेरी आँख
अब मुझे जीने नहीं देती।
वे आये
और उतार कर ले गये
बग़ल में बैठे आदमी की कमीज़
मैं अपने जूतों के फीते कसता रहा
और हँसता रहा
एक महीन बेशर्म लम्बी तटस्थ हँसी
सवालों से आँख बचाकर
मैं खिसक तो आया नेपथ्य में
लेकिन खु़द से
सवाल करती हुई मेरी आँख
अब मुझे जीने नहीं देती।