तुम्हारे बिन / देवेन्द्र आर्य

अब कितने दिन और
भटकती रातें बिखरे बिखरे दिन
होगा भी क्या
इसके सिवा तुम्हारे बिन।

चांद सितारे होते तो हैं पर उपलब्ध नहीं होते
बिछुआ, पायल, कंगन, आंचल केवल शब्द नहीं होते।
चीज़ें तो कंधों पर भी ढोई जा सकती हैं लेकिन
खुशबू, अनुभव, स्वाद, गीत हम केवल यादों में ढोते।

पतझर का मौसम भी तो
मौसम ही होता है लेकिन
क्यों कुछ मामूली बातें भी
हो जाती हैं बहुत कठिन।

प्राणों के ऊपर निष्प्राणों की भी पड़ती है छाया
गांठ पड़ी उलझी किरनों को कौन भला सुलझा पाया
आड़ न हो तो आहट कैसी, बाड़ न हो, बेगाना क्या
एक मोह से ही तो मिट्टी, मिट्टी है, काया, काया।

ख़तरों का अनुमान अगर
लग भी जाए तो क्या होगा
क्या घर बैठे घर की प्यास
बुझा पाएगी पनिहारिन?

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.