प्रणय के तुम चाहोगी गान! !
दो दिन का यह खेल-घरौंदा, तुमको प्यारा लगता;
आँखमिचौनी का यह कौतुक जग से न्यारा लगता;
फूल-फूल पर रीझा भौंरा तुमको ललचाता है;
और, तितलियों का मोहक सुख मन को उकसाता है
अमराई की इस रस-ऋतु में, तुम चाहोगी तान!
पर कैसे तुमको बतलाऊँ, मैं अपनी लाचारी?
रस का लोभी होकर भी मैं बन न सका व्यापारी;
ललचाई आँखों में मैंने पाकर मधुर इशारे
अब तक जितने दाँव लगाए, एक-एक कर हारे;
और आज, अब तुम आई हो, लिये मधुर मुस्कान!