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त्रासदी / देवेन्द्र आर्य

बहरों को बाहरी आवाज़ें भले न सुनाई पड़तीं हों
अपनी आवाज़ ख़ूब सुन पड़ती है

गूँगा दूसरों से बात न कर पाए
ख़ुद से बोलता बतियाता है मगर

अन्धा बाहरी इशारे बेशक न समझ पाए
अपने हाथ का लिखा सुधार लेता है

अन्धे गूँगे बहरे
स्वयं के लिए अन्धे गूँगे बहरे नहीं होते

जब तक आँखें हैं तभी तक हम अन्धे हैं
कान हैं तभी हम बहरे हैं
ज़बान हो ही न तो आप गूँगे कैसे  ?
हम अपने लिए नहीं दूसरों के लिए होते हैं दीदावर
कान के कच्चे पक्के और ज़बानदार

आँखें होते हम अपने भीतर देख नहीं पाते
कान होते मन की बात सुन नहीं पाते
ज़बान रहते ख़ुद से बात कर नहीं पाते

होते हुए भी न होना कितना त्रासद है