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दिये से दिया / दिनेश कुमार शुक्ल

दिये से दिया
दिये से
जलता है दिया

काँटे से निकलता है
काँटा

एक कोयल के बोलते ही
कुहुक उठती हैं
जंगल की सारी कोकिलायें

एक कविता
जगते ही
हृदय में फँसी
तमाम कविताओं को
खींच लाती है बाहर

इस तरह धीरे-धीरे
पृथ्वी को घेर लेती हैं
कवितायें, बच्चियों की तरह
एक दूसरे का हाथ थामे-थामे