1.
भैरों कैसो सोहै रंग गोरी अंग छाया संग,
सोहनी तरंग देत मेघ की बहार मैं।
दीप की नाक कत गुन करी फूलै बाँक
मारो नैन झाँक बस्यो सारँग पहार मैं।
धनासरी राग मांझ गावत ललित तान
झूलत हिंडोले स्याम गहन फुहार मैं।
परभाती नाम बाम आइ भास रहे ठाम
एती सुगराई राम करी वा कुमार मैं॥63॥
2.
देखत ही रुचि बाढ़ी महा, रसलीन सबै नवत गुन छायो।
बाँधे हूँ पाछो तिह रो तजैं नहिं, नेम यहै जिय में ठहरायो।
छोर तं आइ चहैं परो पायन कैसे छिपै यह भेद छिपायो।
केसन के ढँग लीने हैं केसव री जब तें तौ सनेह लगायो॥64॥
3.
काहू को आवत हीं मग माँह गरें निज बीचन में उरझायो।
काहू सों स्याम सरूप हीं सो रसलीन ठगोरी से डारि लुभायो।
सार मही बरजोर हीं लेत हैं नेक न काहू को मानैं डरायो।
केसन के ढँग सीखे हैं केसव री जब तें तौ सनेह लगायो॥65॥
4.
कच री बराबरी कों चामर न भात नीकों,
सोहनी मों गोरा प्यारे बनौं रघोई मैं।
गुलगुलात तासे को चूर मोहि कर डारो,
चपलक मलाई सो मिसरी मलोई मैं।
पाय परत रोइ परे दूरी सोवा डार कर
कमरखाचार फिर नीके रस भोई मैं।
पूरी के हलोई मोहन भोग काज पोइ-पोइ
मन मोहि सोइ सो सोहै जो है रसोई मैं॥66॥
5.
आवै कहै सुरबानी जबै तब भाखा कहा मुख तें कौउ भाखै।
छावै मधुब्रत मालती फूल तो कुंद के चोंप न कैसहुँ राखै।
खावै निरंतर पान को आन सो काहे को दाँतनि लावै री लाखै।
पावै जीऊ मुख चंद की जोति चकोर तो चंद्रिका भूल न चाखै॥67॥