रहता हूँ मैं शहर में
जैसे-तैसे, अपना अस्तित्व बनाए,
कमर-तोड़ महँगाई की मार झेलते हुए,
लेकिन मेरे इस यथार्थ से कोसों दूर
रहते हैं मेरे परिजन/दूर एक गाँव में,
लगाए हैं ढेरों आस मुझसे व मेरी वापसी से।
यही से देख सकता हूँ/ मैं संजय की भांति,
उनके दारुण-दुखों और लाचारियों का
लथपथ महाभारत....
माँ के खये में रहता होगा तीखा दर्द, सदा की तरह
बापू होंगे परेशान अपनी उखड़ी साँस से,
भैया को, अक्सर, उठ आती होगी तेज दुखन, टी.बी. से गली
पसलियों में,
बहिन होगी स्वस्थ, मगर अन्यमनस्क-सी, अविवाहित, खुद को बोझ
समझे,
नाहक अपराधबोध सहती हुई,
घरवाली भूलाती होगी मुझे, घर के काम-काज में, रात-दिन खटकर, छायी होगी घर के आँगन में निराश की एक अजीब-सी धुंध, हर तरफ,
घर के बाहर बैठी होगी बूढ़ी गैया, विचारों में निमग्न, चिंता-फिक्र की जुगाली-सी
करती, निर्निमेष शून्य में ताकती हुई,
आते होंगे साहूकार ढेरों गलियों का विष-वामन करते हुए
और थोप जाते होंगे एक अजीब-से निरीहता, बेबसी और लाचारगी
का आलम मेरे पूरे घर पर,
देते होंगे पिता उनको रिरियाकर वास्ता हर बार, मेरे शहर से लौटने
का, कि “तभी चुका देंगे आपकी
सारी देनदारियाँ आना-पाई, मुक़द्दम, तनिक और धीरज धरो!”
यह जानते हुए भी कि मैं भी
बेवस हूँ उन्हीं की तरह अपने अस्तित्व में, शहर में महँगाई की भीषण मार झेलते हुए!
लेकिन, इन सबसे बिलकुल अलग, घर में नन्हा ‘छुटकू’ खेलता होगा बे-फिक्र,
दिनभर, इधर से उधर धमाचौकड़ी करता, निर्द्वंध औ, निर्भीक, अपने कंचे, लट्टू और गुल्ली-डंडे में मगन....
मगर, कब तक रह पायगा परे ‘छुटकू’/इन तमाम दुश्वारीयों के चुंगुल से,
कब तक जी पाएगा वह/अपने बचपन के स्वप्न-लोक में?
कब तक रख पाएगी ‘छुटकू’ की किस्मत उसे महफूज,
हमारी बिडम्बनाओं से अलग?
यही सब सोचकर, घोर निराशाओं के क्षितिज में, उम्मीद का अंतिम सूरज भी,
डूबने लगता है…..