मटमैला अंधेरा
घेरा बनाता मौन था
पक्षियों की तड़फड़ाहट से
सूर्यग्रहण के पुराने किस्सों की ताजगी में
डूबता जा रहा था आकाश
बूंदा-बांदी की घड़ी
बेहाथ हो चली थी
कांप रही थी जौ की बालियां
पेड़ भूल रहे थे पतझड़ का मौसम
सारंगी धुन पर
कोई सुबह से ही बैठा गा रहा था
फसलों का धीमा संगीत।